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त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑मावः॒ शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा॑ सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्य॑स्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ ha tyad indra kutsam āvaḥ śuśrūṣamāṇas tanvā samarye | dāsaṁ yac chuṣṇaṁ kuyavaṁ ny asmā arandhaya ārjuneyāya śikṣan ||

पद पाठ

त्वम्। ह॒। त्यत्। इ॒न्द्र॒। कुत्स॑म्। आ॒वः॒। शुश्रू॑षमाणः। त॒न्वा॑। स॒ऽम॒र्ये। दास॑म्। यत् शुष्ण॑म्। कुय॑वम्। नि। अ॒स्मै॒। अर॑न्धयः। आ॒र्जु॒ने॒याय॑। शिक्ष॑न् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:19» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सूर्य के समान प्रतापयुक्त राजा (त्वम्) आप सूर्य के समान (त्यत्) उस (कुत्सम्) बिजुली के तुल्य वज्र को दुष्टों पर प्रहार कल्याण करनेवाली प्रजा की (आवः) पालना कीजिये (शुश्रूषमाणः) सुनने की इच्छा करनेवाले आप (तन्वा) शरीर से (समर्ये) संग्राम में (ह) ही उत्तम सेना की रक्षा कीजिये (यत्) और जिस (शुष्णम्) शुष्क करने वा (कुवयम्) कुत्सित यव आदि अन्न रखनेवाले (दासम्) दाता वा सेवक को (नि, अरन्धयः) नहीं मारते (अस्मै) इस (आर्जुनेयाय) सुन्दर रूपवती विदुषी के पुत्र के निमित्त (शिक्षन्) विद्या इकट्ठी कराते हुए अविद्या को हनो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्याप्राप्ति के लिये आप्त, श्रेष्ठ, विद्वान् अध्यापकों की शुश्रूषा करते शरीर और आत्मा के बल का विधान कर संग्राम में दुष्टों को जीतते और विद्याध्ययन से रहित जनों का तिरस्कार करते, विद्याभ्यास करनेवालों का सत्कार करते हैं, वे स्थिर राज्यैश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र राजँस्त्वं सूर्य इव त्यत्कुत्सं दुष्टानामुपरि प्रहृत्य भद्रिकाः प्रजा आवः शुश्रूषमाणस्त्वं तन्वा समर्ये होत्तमा सेना आवो यद्यं शुष्णं कुयवं दासं न्यरन्धयोऽस्मा आर्जुनेयायाशिक्षन्नविद्यां हिंस्याः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्यम्) (ह) खलु (त्यत्) (इन्द्र) सूर्य इव प्रतापयुक्त (कुत्सम्) विद्युतमिव वज्रम् (आवः) रक्षेः (शुश्रूषमाणः) श्रोतुमिच्छमानो विद्याश्रवणाय सेवां कुर्वाणः (तन्वा) शरीरेण (समर्ये) (दासम्) दातारं सेवकं वा (यत्) यम् (शुष्णम्) शोषकं बलवन्तम् (कुयवम्) कुत्सिता यवा अन्नादि यस्य तम् (नि) (अस्मै) (अरन्धयः) हिंसयेः (आर्जुनेयाय) अर्जुन्याः सुरूपवत्या विदुष्याः पुत्राय (शिक्षन्) विद्योपार्जनं कारयन् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्याप्राप्तय आप्तानध्यापकान् शुश्रूषन्ते शरीरात्मबलं विधाय संग्रामे दुष्टान् विजयन्ते विद्याध्ययनविरहाँस्तिरस्कृत्य विद्याभ्यासकान् सत्कुर्वन्ति ते स्थिरं राज्यैश्वर्यं प्राप्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्याप्राप्तीसाठी आप्त श्रेष्ठ विद्वान अध्यापकांची शुश्रूषा करतात. शरीर व आत्म्याच्या बलाचे नियम बनवून युद्धात दुष्टांना जिंकून विद्याध्ययनरहित लोकांचा तिरस्कार करून विद्याभ्यास करणाऱ्यांचा सत्कार करतात ते स्थिर राज्यैश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ २ ॥